राइट टू डाई’ यानि मृत्यु का अधिकार क्या है, जिसे कर्नाटक लागू किया, ये ‘इच्छा मृत्यु’ से कितना अलग

मृत्यु का अधिकार (Right to Die) और इच्छा मृत्यु (Euthanasia) के बीच का अंतर
हाल ही में कर्नाटक सरकार ने ‘राइट टू डाई’ या मृत्यु का अधिकार के तहत एक महत्वपूर्ण कदम उठाया, जो समाज में एक संवेदनशील मुद्दा है। यह कदम इच्छा मृत्यु (Euthanasia) से अलग है और इसे बेहतर तरीके से समझना जरूरी है।
मृत्यु का अधिकार (Right to Die) क्या है?
मृत्यु का अधिकार का मतलब है कि किसी इंसान को यह अधिकार हो कि वह अपनी जीवन यात्रा को स्वेच्छा से खत्म कर सके, खासतौर पर तब जब वे असहनीय पीड़ा या गंभीर बीमारियों का सामना कर रहे हों। यह एक ऐसा निर्णय है जिसे व्यक्ति अपने जीवन के प्रति खुद लेता है, जिसमें वह चिकित्सा हस्तक्षेप को रोकने या जीवन-रक्षक उपचार को न लेने का फैसला कर सकता है।
कर्नाटक सरकार ने इस मुद्दे को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें यह अधिकार दिया गया है कि इंसान अपनी अंतिम घड़ी का सामना बिना किसी कृत्रिम उपाय या लंबी चिकित्सा प्रक्रिया के कर सके। इसका उद्देश्य यह है कि किसी भी व्यक्ति को उस स्थिति में जब उसका जीवन सिर्फ कष्टकारी हो और कोई सुधार की संभावना न हो, उसे ज़बरदस्ती जीवन रक्षक तकनीक के जरिए जीवित न रखा जाए।
इच्छा मृत्यु (Euthanasia) से कैसे अलग?
‘राइट टू डाई’ और ‘इच्छा मृत्यु’ को अक्सर एक ही जैसा समझा जाता है, लेकिन ये दोनों अलग-अलग कानूनी और नैतिक परिभाषाएं रखते हैं।
1. इच्छा मृत्यु (Euthanasia): इसमें डॉक्टर या कोई अन्य व्यक्ति सीधे तौर पर मरीज की जान लेने में शामिल होता है। यह तब होता है जब मरीज बहुत गंभीर अवस्था में होता है और उसकी रिकवरी की कोई उम्मीद नहीं होती। इस प्रक्रिया में डॉक्टर मरीज को दवाई या अन्य उपाय के जरिए मृत्यु प्राप्त करने में मदद करता है।
2. मृत्यु का अधिकार (Right to Die): यह वह अधिकार है जिसमें व्यक्ति खुद निर्णय लेता है कि वह चिकित्सा सेवाओं को बंद करना चाहता है या जीवन-रक्षक उपायों से इनकार करना चाहता है। इसमें कोई दूसरा व्यक्ति उसकी मृत्यु में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं होता।
कानूनी और नैतिक दृष्टिकोण
जहां एक ओर इच्छा मृत्यु पर कड़ी बहस होती है, वहीं मृत्यु का अधिकार एक अधिक व्यक्तिगत और आत्म-निर्णय पर आधारित अधिकार है। कई लोग इसे अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान की रक्षा के रूप में देखते हैं। यह कानून उन्हें यह अधिकार देता है कि वे बिना दर्द और तकलीफ के अपनी अंतिम यात्रा को चुन सकें।
कर्नाटक द्वारा लागू किया गया यह कदम एक तरह का ‘पासिव यूथेनेशिया’ है, जहां जीवन रक्षक उपकरणों या इलाज को हटा दिया जाता है, परंतु किसी को एक्टिव तरीके से जीवन समाप्त करने की अनुमति नहीं है.
मृत्यु का अधिकार और इच्छा मृत्यु, दोनों ही संवेदनशील मुद्दे हैं, लेकिन दोनों के बीच एक गहरा अंतर है। कर्नाटक द्वारा मृत्यु का अधिकार को लागू करना एक साहसिक कदम है, जो मानवाधिकार और आत्मनिर्णय के सिद्धांतों पर आधारित है। यह उन लोगों के लिए एक आशा की किरण है जो अपनी पीड़ा को खत्म करना चाहते हैं, लेकिन इसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं होता।
इस मुद्दे पर जागरूकता और समझ बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग सही और सटीक जानकारी प्राप्त कर सकें।
मृत्यु का अधिकार: विस्तार से समझें
कर्नाटक सरकार द्वारा लागू किया गया ‘राइट टू डाई’ कानून न केवल एक संवेदनशील मुद्दा है बल्कि इसका गहरा कानूनी और नैतिक प्रभाव भी है। इस अधिकार के जरिए किसी व्यक्ति को यह स्वतंत्रता दी जाती है कि वे अपने जीवन की अंतिम अवस्था में खुद यह फैसला ले सकें कि कब और कैसे वे अपनी मृत्यु का सामना करेंगे। इसमें यह ध्यान रखा जाता है कि वह व्यक्ति दर्द और असहनीय पीड़ा से गुजर रहा है और उसका ठीक होना संभव नहीं है।
मृत्यु का अधिकार की आवश्यकता क्यों?
बहुत से लोग गंभीर बीमारियों या असहनीय शारीरिक पीड़ा का सामना करते हैं, जिनका कोई इलाज नहीं होता। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का जीवन एक बोझ बन सकता है, जहां उसकी गरिमा पर आघात होता है। कई बार यह स्थिति इतनी दयनीय हो जाती है कि व्यक्ति और उसके परिवार दोनों को इस अत्यधिक दर्द और भावनात्मक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। ‘राइट टू डाई’ की अवधारणा इसी मान्यता पर आधारित है कि हर व्यक्ति को गरिमापूर्ण ढंग से मरने का अधिकार होना चाहिए, न कि मशीनों के जरिए जबरदस्ती जीवित रखा जाए।
इच्छा मृत्यु (Euthanasia) और मृत्यु का अधिकार में कानूनी अंतर
1. इच्छा मृत्यु (Active Euthanasia):
यह प्रक्रिया तब होती है जब डॉक्टर या अन्य स्वास्थ्य पेशेवर मरीज को मृत्यु तक पहुँचाने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, एक घातक इंजेक्शन देकर जीवन समाप्त करना। इस तरह की प्रक्रिया को दुनिया के अधिकांश हिस्सों में अवैध माना जाता है, क्योंकि यह एक जानबूझकर किया गया कदम होता है जो किसी व्यक्ति की जान लेता है।
2. मृत्यु का अधिकार (Right to Die):
इसके तहत व्यक्ति को यह अधिकार दिया जाता है कि वह किसी प्रकार के जीवन-रक्षक उपचार या तकनीक से इनकार कर सके। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी और के द्वारा उसकी मौत की प्रक्रिया तेज की जाए। इसमें मरीज केवल यह कहता है कि उसे कृत्रिम जीवन सहायता जैसे वेंटिलेटर या अन्य उपकरणों से न जोड़ा जाए।
दुनिया भर में स्थिति
कई देशों में इस विषय पर अलग-अलग कानून हैं। उदाहरण के लिए:
नीदरलैंड, बेल्जियम, और लक्जमबर्ग: यहां इच्छामृत्यु को कुछ शर्तों के तहत वैध माना गया है, जहां व्यक्ति की सहमति और उसकी बीमारी की गंभीरता का ध्यान रखा जाता है।
स्विट्जरलैंड: यहां ‘असिस्टेड सुसाइड’ को अनुमति दी गई है, यानी व्यक्ति को मौत के लिए दवाओं की आपूर्ति की जा सकती है लेकिन उसे खुद उसे लेना होगा।
भारत में: भारत में ‘पैसिव यूथेनेशिया’ (Passive Euthanasia) वैध है, जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2018 में एक ऐतिहासिक फैसले के तहत मान्यता प्राप्त है। इसके अंतर्गत, व्यक्ति जीवन-रक्षक उपचार को बंद करने का फैसला ले सकता है।
मृत्यु का अधिकार के समर्थन में तर्क
1. गरिमापूर्ण मृत्यु: मृत्यु का अधिकार इंसान को अपने जीवन की आखिरी घड़ी में गरिमा बनाए रखने की अनुमति देता है। यह इंसान की आत्मसम्मान और निजी स्वतंत्रता का सम्मान करता है।
2. आर्थिक और मानसिक बोझ कम करना: कई परिवारों को मरीजों की लंबी बीमारियों के दौरान भारी आर्थिक खर्च और मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। जीवन-रक्षक तकनीकों पर निर्भर रहना न केवल परिवार के लिए एक बोझ बन सकता है, बल्कि मरीज के लिए भी अत्यधिक कष्टकारी हो सकता है।
3. व्यक्तिगत अधिकार: यह अधिकार इंसान को अपने जीवन पर अंतिम नियंत्रण देता है। इसे उसके जीवन के प्रति अंतिम और व्यक्तिगत निर्णय के रूप में देखा जा सकता है।
विरोध के तर्क
1. जीवन की पवित्रता: कई लोग मानते हैं कि जीवन अत्यधिक मूल्यवान है और इसे समाप्त करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। चाहे कितना भी दर्द हो, जीवन का अंत प्रकृति द्वारा तय किया जाना चाहिए, न कि किसी व्यक्ति या कानून द्वारा।
2. गलत इस्तेमाल की संभावना: अगर इस तरह का कानून बिना सही निगरानी के लागू होता है, तो इसके दुरुपयोग की संभावना होती है। इसमें परिवार या चिकित्सक आर्थिक या अन्य व्यक्तिगत लाभ के लिए गलत फैसले ले सकते हैं।
3. मानसिक स्वास्थ्य और प्रभाव: यह आशंका होती है कि कई बार व्यक्ति मानसिक अवसाद या क्षणिक भावनाओं के चलते गलत निर्णय ले सकते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें सही चिकित्सा और मानसिक सहायता की आवश्यकता होती है, न कि जीवन समाप्त करने की।
मृत्यु का अधिकार एक अत्यधिक संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह एक ऐसा विषय है, जिस पर समाज में गहरी बहस और विचार-विमर्श की आवश्यकता है। कर्नाटक द्वारा लिया गया कदम इस बात की ओर इशारा करता है कि अब समय आ गया है कि हम इस मुद्दे को संवेदनशीलता और गहराई से समझें और इसके कानूनी और नैतिक पहलुओं पर खुलकर विचार करें।
हालांकि यह मुद्दा विवादित है, लेकिन इसमें इंसान की गरिमा, स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय का बड़ा स्थान है। चाहे हम इसके पक्ष में हों या विरोध में, यह महत्वपूर्ण है कि हम इस पर विचार करें और समाज में इसके प्रभावों को समझें, ताकि इसे सही दिशा दी जा सके।
मृत्यु का अधिकार (Right to Die) पर और गहराई से विचार
मृत्यु का अधिकार केवल कानून और नीति से संबंधित मुद्दा नहीं है, बल्कि यह मानवीय गरिमा और नैतिकता से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह अधिकार किसी व्यक्ति को यह चुनने की अनुमति देता है कि वह कब और कैसे अपना जीवन समाप्त करना चाहता है, खासकर तब जब जीवन असहनीय पीड़ा में बदल गया हो। इस विषय पर गहराई से चर्चा करने से पता चलता है कि इसका समाज, कानून और व्यक्ति पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
भारतीय समाज में मृत्यु का अधिकार और इसकी स्वीकृति
भारत जैसे देश में, जहां जीवन को एक पवित्र उपहार माना जाता है और धर्मों में इसे परमात्मा की देन समझा जाता है, मृत्यु का अधिकार एक जटिल मुद्दा है। कई संस्कृतियों और धर्मों में आत्महत्या और जानबूझकर जीवन समाप्त करने को पाप माना जाता है। ऐसे में ‘राइट टू डाई’ या ‘इच्छा मृत्यु’ पर खुलकर बात करना आसान नहीं है। हालांकि, समय के साथ इस विषय पर समाज में बदलाव आ रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति और गंभीर बीमारियों के इलाज के बावजूद, ऐसे मामले सामने आते हैं जहां मरीज की पीड़ा असहनीय हो जाती है, और जीवन के अंत को स्वीकारना ही एकमात्र राहत का रास्ता बनता है।
कानूनी प्रक्रिया और सुरक्षा उपाय
किसी भी देश में मृत्यु का अधिकार एक गंभीर कानूनी निर्णय है, जिसके लिए मजबूत सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होती है। कर्नाटक सरकार द्वारा इस मुद्दे पर पहल करना यह दर्शाता है कि अब राज्य यह सुनिश्चित करने की दिशा में काम कर रहे हैं कि मृत्यु का अधिकार का इस्तेमाल केवल उन मामलों में हो, जहां इसकी अत्यधिक आवश्यकता हो।
इस प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण कानूनी उपाय शामिल हो सकते हैं:
1. चिकित्सकीय मूल्यांकन: एक मेडिकल बोर्ड द्वारा व्यक्ति की हालत का गहन मूल्यांकन किया जाना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि मरीज की स्थिति वास्तव में इलाज से परे है और उसकी पीड़ा असहनीय है।
2. व्यक्तिगत सहमति: व्यक्ति की स्पष्ट और आत्मनिर्भर सहमति बेहद जरूरी है। अगर वह व्यक्ति मानसिक रूप से निर्णय लेने में सक्षम नहीं है, तो उसके परिवार या कानूनी अभिभावक को इस प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है, लेकिन इसका दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त निगरानी होनी चाहिए।
3. न्यायिक मंजूरी: मृत्यु का अधिकार लागू करने से पहले न्यायिक मंजूरी आवश्यक होनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसमें कोई कानून का उल्लंघन या व्यक्ति के अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है।
मृत्यु का अधिकार: एक वैकल्पिक दृष्टिकोण
मृत्यु का अधिकार केवल पीड़ा से मुक्ति नहीं है, बल्कि यह मानवीय गरिमा के प्रति सम्मान का प्रतीक भी है। इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन को कमतर मान रहा है, बल्कि यह उस इंसान का निर्णय है जो कष्ट और दुख से परे शांति और मुक्ति चाहता है। इस अधिकार को सही संदर्भ में देखना बेहद जरूरी है ताकि इसे गलत अर्थों में न लिया जाए।
1. मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: मृत्यु का अधिकार लागू करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि मरीज मानसिक रूप से स्थिर है और उसकी निर्णय लेने की क्षमता सही है। अवसाद, मानसिक विकार या किसी भी प्रकार के मानसिक दबाव में लिया गया निर्णय हमेशा सही नहीं होता। इसलिए यह जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ भी इस प्रक्रिया में शामिल हों।
2. जीवन की गुणवत्ता पर विचार: जब जीवन केवल पीड़ा और यातना में बदल जाता है, तो व्यक्ति के लिए जीवन की गुणवत्ता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस स्थिति में मृत्यु का अधिकार उस व्यक्ति को अपनी स्थिति से बाहर निकलने का साधन देता है।
मृत्यु का अधिकार: नैतिक और धार्मिक पहलू
धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से, मृत्यु का अधिकार पर विवाद बना रहता है। कई धर्मों में जीवन को सर्वोच्च माना गया है और उसे समाप्त करना पाप समझा जाता है। विशेष रूप से भारतीय समाज में, जहां परिवार, समाज और धर्म का गहरा प्रभाव है, व्यक्ति के जीवन से जुड़ा कोई भी निर्णय केवल व्यक्तिगत नहीं होता। यहां तक कि जब कोई व्यक्ति मृत्यु का चयन करता है, तो इसके पीछे सामाजिक और धार्मिक विचारों की भी भूमिका होती है।
हालांकि, समय के साथ, धार्मिक विचारों में भी कुछ लचीलापन देखने को मिल रहा है। कई धार्मिक गुरु और नेता अब मानते हैं कि अगर जीवन केवल पीड़ा और दुःख का स्रोत बन गया है, तो व्यक्ति को शांतिपूर्वक मरने का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन यह विचारधारा अभी भी समाज में व्यापक रूप से स्वीकृत नहीं है।
संभावित परिणाम और भविष्य की दिशा
कर्नाटक सरकार द्वारा ‘राइट टू डाई’ को लेकर की गई पहल भारतीय समाज में एक बदलाव की ओर इशारा करती है। यह केवल एक राज्य का निर्णय नहीं है, बल्कि भविष्य में अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण बन सकता है। मृत्यु का अधिकार लागू करने के बाद कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं, जैसे:
इस अधिकार का दुरुपयोग कैसे रोका जाएगा?
क्या समाज इसके लिए तैयार है?
क्या चिकित्सा और कानूनी ढांचे में इतने बदलाव किए गए हैं कि इसका उचित तरीके से कार्यान्वयन हो सके?
Notes Lines
मृत्यु का अधिकार एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर गहराई से विचार-विमर्श और चर्चा की आवश्यकता है। यह न केवल व्यक्ति के जीवन पर अधिकार का मुद्दा है, बल्कि समाज, कानून, नैतिकता और मानवीय गरिमा के बीच संतुलन बनाने का भी सवाल है।
कर्नाटक द्वारा उठाए गए इस कदम ने एक नई दिशा दी है, लेकिन इसे सही तरीके से लागू करने के लिए न केवल सरकार और न्यायपालिका की, बल्कि समाज और धर्म की भी भागीदारी जरूरी है। मृत्यु का अधिकार देना सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं, बल्कि यह उस व्यक्ति के जीवन और उसकी पीड़ा के प्रति गहरी संवेदना और सम्मान का प्रतीक है।
FAQs

मृत्यु का अधिकार (Right to Die) से जुड़े सामान्य प्रश्न (FAQs)
1. मृत्यु का अधिकार (Right to Die) क्या है?
मृत्यु का अधिकार वह अधिकार है, जो किसी व्यक्ति को स्वेच्छा से अपनी जीवन यात्रा को समाप्त करने का विकल्प देता है, खासकर तब जब वह गंभीर बीमारी या असहनीय पीड़ा का सामना कर रहा हो। इसमें व्यक्ति यह निर्णय लेता है कि उसे जीवन-रक्षक चिकित्सा या उपकरणों का उपयोग बंद कर देना चाहिए।
2. क्या मृत्यु का अधिकार और इच्छा मृत्यु (Euthanasia) एक ही चीज़ हैं?
नहीं, मृत्यु का अधिकार और इच्छा मृत्यु (Euthanasia) अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। इच्छा मृत्यु में कोई अन्य व्यक्ति, जैसे डॉक्टर, सक्रिय रूप से मरीज की मृत्यु में मदद करता है, जबकि मृत्यु का अधिकार व्यक्ति को जीवन-रक्षक उपचार से इनकार करने की अनुमति देता है। इसमें कोई और व्यक्ति उसकी मृत्यु का कारण नहीं बनता।
3. कर्नाटक सरकार ने किस प्रकार का कानून लागू किया है?
कर्नाटक सरकार ने एक पहल की है जो ‘राइट टू डाई’ के अंतर्गत जीवन-रक्षक उपकरणों या इलाज से इनकार करने की अनुमति देती है। यह ‘पैसिव यूथेनेशिया’ का एक प्रकार है, जिसमें मरीज को कृत्रिम रूप से जीवित रखने से बचाने के लिए जीवन-रक्षक तकनीकों को हटा लिया जाता है।
4. मृत्यु का अधिकार किसे प्राप्त होता है?
यह अधिकार उन व्यक्तियों को प्राप्त होता है जो गंभीर बीमारियों या असहनीय शारीरिक पीड़ा से जूझ रहे हों और जिनकी चिकित्सा स्थिति से उबरने की कोई संभावना न हो। इसके लिए एक चिकित्सकीय मूल्यांकन और न्यायिक मंजूरी की आवश्यकता हो सकती है।
5. मृत्यु का अधिकार का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है?
मृत्यु का अधिकार तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब व्यक्ति पूरी तरह से मानसिक रूप से सक्षम हो और उसे यह स्पष्ट हो कि उसकी स्थिति गंभीर और असाध्य है। इस प्रक्रिया में मरीज को इलाज बंद करने या जीवन-रक्षक उपकरणों से अलग करने का फैसला किया जाता है।
6. क्या भारत में इच्छा मृत्यु (Euthanasia) वैध है?
भारत में ‘पैसिव यूथेनेशिया’ यानी जीवन-रक्षक उपकरणों को हटाने की अनुमति है, लेकिन ‘एक्टिव यूथेनेशिया’ जिसमें व्यक्ति की मृत्यु को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जाता है, वह अवैध है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में ‘पैसिव यूथेनेशिया’ को कानूनी मान्यता दी थी।
7. क्या मृत्यु का अधिकार धर्म के खिलाफ है?
यह एक जटिल और विवादित मुद्दा है। कई धर्म जीवन को पवित्र मानते हैं और जानबूझकर इसे समाप्त करने के खिलाफ हैं। हालांकि, कुछ धार्मिक नेताओं का मानना है कि अगर जीवन असहनीय पीड़ा में बदल गया है, तो मृत्यु का अधिकार मानव गरिमा के साथ संगत हो सकता है।
8. क्या मृत्यु का अधिकार का दुरुपयोग हो सकता है?
हां, इसके दुरुपयोग की संभावना हो सकती है, अगर इसे सही निगरानी और सुरक्षा उपायों के बिना लागू किया जाता है। इसलिए, कानूनी और चिकित्सकीय प्रक्रियाओं के साथ-साथ मजबूत सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसका गलत फायदा न उठाया जाए।
9. मृत्यु का अधिकार की प्रक्रिया क्या है?
मृत्यु का अधिकार प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित प्रक्रियाएँ हो सकती हैं:
- चिकित्सकीय मूल्यांकन यह सुनिश्चित करने के लिए कि व्यक्ति की स्थिति असाध्य है।
- मरीज की स्पष्ट सहमति।
- न्यायिक या कानूनी मंजूरी, ताकि इस अधिकार का गलत इस्तेमाल न हो।
10. दुनिया में किन देशों में मृत्यु का अधिकार या इच्छा मृत्यु की अनुमति है?
कुछ देशों जैसे नीदरलैंड, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, और स्विट्जरलैंड में इच्छा मृत्यु (Euthanasia) को कानूनी मान्यता प्राप्त है। ये देश सक्रिय रूप से इच्छा मृत्यु या असिस्टेड सुसाइड की अनुमति देते हैं, हालांकि इसके लिए सख्त कानून और नियम होते हैं।
11. क्या मानसिक बीमारी वाले व्यक्ति को मृत्यु का अधिकार मिल सकता है?
यह स्थिति जटिल है। किसी भी व्यक्ति को मानसिक रूप से स्थिर होना आवश्यक है ताकि वह अपनी स्थिति का सही आकलन कर सके और मृत्यु का निर्णय कर सके। यदि कोई मानसिक बीमारी से जूझ रहा है, तो इसे गंभीरता से जांचने की जरूरत होती है, ताकि भावनात्मक निर्णय लेने से बचा जा सके।
12. क्या परिवार को मृत्यु का अधिकार के लिए सहमति देनी होती है?
मरीज की सहमति सर्वोपरि होती है। हालांकि, अगर मरीज मानसिक रूप से असमर्थ है, तो परिवार या कानूनी अभिभावक की सहमति महत्वपूर्ण हो सकती है। लेकिन इस मामले में भी न्यायिक मंजूरी जरूरी हो सकती है ताकि निर्णय का दुरुपयोग न हो।
13. मृत्यु का अधिकार और जीवन की गुणवत्ता का क्या संबंध है?
मृत्यु का अधिकार उस स्थिति में आता है, जब व्यक्ति की जीवन की गुणवत्ता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी हो और उसे केवल पीड़ा और असहनीय शारीरिक कष्ट झेलने पड़ रहे हों। यह अधिकार व्यक्ति को सम्मानजनक ढंग से अपनी जीवन यात्रा समाप्त करने का विकल्प देता है।
14. क्या मृत्यु का अधिकार केवल शारीरिक बीमारियों के लिए है?
आमतौर पर मृत्यु का अधिकार उन व्यक्तियों के लिए होता है जो गंभीर शारीरिक बीमारियों का सामना कर रहे होते हैं, जहां इलाज की कोई संभावना नहीं होती। हालांकि, मानसिक बीमारियों के मामलों में इसका इस्तेमाल विवादास्पद है और इसे बहुत सतर्कता से देखा जाता है।
15. क्या भारत में यह मुद्दा अन्य राज्यों में भी उठ सकता है?
कर्नाटक द्वारा इस पहल के बाद, यह संभावना है कि अन्य राज्य भी इस विषय पर विचार करें। हालांकि, यह राज्य और केंद्र सरकार के विचारों पर निर्भर करेगा और इस पर कानून बनाने से पहले व्यापक चर्चा की आवश्यकता होगी।
मृत्यु का अधिकार एक संवेदनशील और जटिल मुद्दा है, और इसके हर पहलू को सही ढंग से समझने के लिए कानून, नैतिकता और समाज के नजरिए से विचार करना जरूरी है।